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दान करना मजबूरी नहीं बल्कि हृदय की प्रसन्नता होनी चाहिए

सुभद्रा कुमारी’सुभ’

हमारे समाज में दान का महत्व बहुत अधिक है. दान करना सांसारिक मोह और आसक्ति से स्वयं को मुक्त करने का प्रथम चरण है. स्वयं द्वारा अर्जित और संचित वस्तु को प्रसन्नतापूर्वक सर्वाधिकार के साथ दूसरों को सौंप देना हीं दान कहलाता है. इसके जरिए हीं हमारा मन भौतिक मोह से छुटकारा पाता है. दान का अर्थ सिर्फ धन का दान हीं नहीं है. बल्कि यह इससे कहीं अधिक विस्तृत भावना और विचार है. दान अन्न का भी हो सकता है और धन का भी, विद्या का भी हो सकता है और समय का भी, दान किसी को क्षमा का भी हो सकता है और इन सबसे बढ़कर जीवन का भी.

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं–
परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
(अर्थात् हमारे द्वारा किया गया वह काम जिससे दूसरे का हित हो उससे बड़ा संसार में कोई धर्म नहीं और हमारे जिस काम से किसी को दुःख पहुंचे या कष्ट हो उससे बड़ा पाप भी कोई और नहीं.) हमारे द्वारा किया जाने वाला सत्कार्य भी समाज के लिए एक प्रकार से दान की श्रेणी में हीं आता है.

दान का मर्म समझाते हुए ओशो कहते हैं कि दान करते समय आप ये न सोचें कि दान किसे दे रहे हैं, वह दान लेने के योग्य है अथवा नहीं. क्योंकि सूरज की किरणें सुबह रोशनी फैलाते समय किसी तरह का भेदभाव नहीं करती. वह समभाव से फूलों और कांटों, फलदार और बिना फल वाले वृक्षों, अच्छे-बुरे, अमीर-गरीब सबको एक समान रौशनी देती है. ठीक वैसे हीं आपको जो भी देने की इच्छा हो उसे खुशी-खुशी दे दीजिए.

ओशो कहते हैं कि यदि कोई अंधा आदमी आपसे भीख मांगने आए तो आपको उसकी आंखों की जांच करने की आवश्यकता नहीं कि वह सचमुच अंधा है अथवा नहीं. क्योंकि यदि कोई इंसान स्वयं को इतना गिरा ले कि आपसे एक रूपए लेने के लिए वह अंधेपन का नाटक करने को भी तैयार हो जाए तो वह सचमुच इतना दयनीय है कि आप उसके अंधेपन की जांच किए बिना उसे एक रूपया दे सकते हैं.

इस संबंध में रहीम कवि भी लिखते हैं कि….
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुं मांगन जांहि।
उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहीं।।
अर्थात् वे मनुष्य मृतक के समान हैं जो भीख मांगने के लिए किसी के सामने हाथ फैलाते हैं लेकिन उन लोगों को उनसे भी पहले मरा हुआ समझ लेना चाहिए जो सामर्थ्य होते हुए भी दान नहीं देते.

दान करना कोई मजबूरी नहीं होनी चाहिए. इसे किसी तरह का तनाव न बनाएं और न हीं स्वर्ग या नरक की सोच कर दान करें. आपको देने का मन हो तभी दें अन्यथा इसके लिए परेशान न हों. थाॅमस अल्वा एडिसन ने एक बार कहा था कि “दान करना हाथों का गुण नहीं बल्कि हृदय की भावना है”. अगर कोई किसी भी प्रकार से दयनीय स्थिति में है और आप उससे बेहतर हैं तो वह आपसे दान पाने के योग्य है. आप खुशी-खुशी उसे वह चीज, जिसकी उसे आवश्यकता है, जितना देना चाहें दे सकते हैं.

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